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हमारा पर्यावरण

लाईक फतेहअली

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5810
आईएसबीएन :978-81-237-4654

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इस पुस्तक में भारत के पहाड़ों, जंगलों, नदियों, समुद्र, गांवों और शहरों के पर्यावरण पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है...

Hamara Pryavaran

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पर्यावरण को होने वाला बहुत-सा नुकसान तो अनजाने में हो जाता है। इस पुस्तक में भारत के पहाड़ों, जंगलों, नदियों, समुद्र, गांवों और शहरों के पर्यावरण पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। साथ ही लोगों को चेताया गया है कि उनकी छोटी-छोटी गतिविधियां किस तरह पर्यावरण की अपूरणीय क्षति कर देती हैं।

इस पुस्तक की लेखिका लाईक फतेहअली सन् 1956 से 1976 तक क्वेस्ट पत्रिका की संपादक रही हैं। बगीचों और बागवानी पर लेखन उनकी विशेष रुचि का विषय रहा है। उन्होंने नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए बगीचों पर एक पुस्तक लिखी है। डॉ. सालीन अली के साथ उनकी एक पुस्तक पक्षियों पर है, जिसका प्रकाशन नेशनल बुक ट्रस्ट से हुआ है।

पर्वत
1
हरी-भरी पहाड़ियां

अगर आप भारत के भौतिक नक्शे की ओर ध्यान से देखें तो पाएंगे कि भारत को बहुत-सी पर्वतमालाओं को बारीकी से देखने पर ऐसा लगता है जैसे किसी ने उन्हें क्रमबद्ध तरीके से सजाया हो। ये पर्वतमालाएं भारत की धरती के लिए एक तंबूनुमा छत का काम करती हैं। इस छत की सबसे ऊपरी सतह अपने निर्धारित स्थान से थोड़ी हटी हुई सी लगती है। ये भारत के पूरब से लेकर पश्चिम तक फैली हुई हैं। पश्चिम की तरफ, ये पर्वतमालाएं छोटी होती हुईं जल्द ही पाकिस्तान में जाकर खत्म हो जाती हैं। पर पूरब में ये दूर तक फैली हैं, और घुमावदार मोड़ लेते हुए ये बंगाल की खाड़ी के आसपास खत्म होती हैं।

अगर हम इस तंबूनुमा छत की बात करें तो ये पर्वतमालाएं अपनी उंची चोटियों के लिए विश्वविख्यात हैं। ये चोटियां जो कि लगभग 22000 फीट (6080 मीटर) तक ऊंची हैं, विश्व की सबसे ऊंची चोटियों में गिनी जाती हैं। इन हिमालयी पर्वतमालाओं की तराई में एक चौड़ी-मोटी पट्टी समतली और उपजाऊ जमीन की है। इसे भारतीय गंगा का कछार कहते हैं। इनकी बनावट को देखकर यूं लगता है जैसे किसी ने अपने विशाल हाथों से इन्हें गढ़ा है, ताकि पहाड़ों पर जमी बर्फ पिघलकर समतली जमीन की ओर बहती जाए और हमें उस जमीन को सींचकर कृषि योग्य बनाने में मदद करे।
दूसरी सबसे ऊंची पर्वत-चोटियां दूर दक्षिण के नीलगिरी और अन्नामलाई पर्वतमालाओं में पाई जाती हैं। इन पर्वतमालाओं के नीचे जो समतली जमीन है, उनकी ऊंचाई लगभग 2000 फीट (608 मीटर) है। ये पहाड़ियां, घाटियां और समतली जमीन मिलकर एक उपयोगी जमीनी संरचना तैयार करते हैं। इनके अलावा सबसे रोचक ढंग से जो पर्वतमाला फैली है वह है पश्चिमी घाट; ये पर्वतमाला पश्चिमी तटों के समकक्ष चलती हुईं, मुंबई के थोड़े उत्तर की ओर से शुरू होकर कन्याकुमारी तक जाती हैं।

हम भाग्यशाली हैं कि हमें इतनी तरह की पर्वतमालाएं, पहाड़ियां और पठारों का उपहार प्रकृति से मिला है। ये पहाड़ियां और पर्वतमालाएं न सिर्फ दर्शनीय होती हैं, बल्कि ये भूमि को उपजाऊ बनाने में भी मुख्य भूमिका निभाती हैं। अगर हमें इन पहाड़ियों और पर्वतमालाओं का उपहार न मिला होता तो हमारी समतली भूमि कृषि योग्य न रहकर, साइबेरिया के रेगिस्तान की तरह रेतीली और बंजर बन गई होती। आइए, हम इनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करें और मालूम करें कि पहाड़ हमारे लिए किस कदर उपयोगी हैं।

अब हम चर्चा करते हैं कि हिमालय देश के उत्तरी किनारों को प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण करने और हमें सबसे ऊंची पर्वत चोटियों का उत्तराधिकारी बनाने के अलावा और क्या-क्या करता है। सबसे पहले तो यह अपनी ऊंचाई के कारण साइबेरिया की ओर से आती हुई सर्द, शुष्क हवाओं को रोकता है और देश के अंदर ऊष्ण, नम मानसूनी हवाओं को अंदर ही समेटे रखने में मदद करता है। अगर हमारे पास ये पर्वत और पहाड़ियां न होती तो हमारी जलवायु और भू संरचना अलग ही होती। साइबेरिया से आती हुई सर्द, शुष्क हवाएं सीधे हमारे देश में आ जातीं और उत्तरी भाग को ठंडे, सर्द भाग में बदल दिया होता।
 
आइए, देखते हैं कि जलवायु और बरसात के अलावा हम और किन चीजों के लिए हिमालय के कर्जदार हैं। हम हिमालय के आभारी हैं उन विशाल नदियों के लिए जो हिमालय के नीचे की चौड़ी, समतली भूमि को उर्वर और कृषि योग्य बनाती हैं। हिमालय की ऊपरी सतह पर जमी बर्फ की मोटी परत लगातार पिघलती रहती है और हिमालय की तराई से निकलने वाली नदियों को हर वक्त पानी से लबालब भरे रखती है। ये स्थायी नदियां देश के उत्तरी भाग में पूरे साल बहती हैं। इन स्थायी नदियों के मुकाबले अन्य सभी नदियां अस्थायी होती हैं और बरसात का पानी न मिलने पर सूख जाती हैं। आमतौर पर बरसाती नदियां (कृष्णा और गोदावरी को छोड़कर) या तो सूख जाती हैं या बरसात खत्म होते ही पतले नाले में बदल जाती हैं। पर गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र सहित सारी नदियां, जिनकी उत्पत्ति हिमालय से होती है, अपने छोटे- छोटे नालों, झरनों समेत साल भर पानी से भरी बहती रहती हैं।

इसलिए में हिमालय को धन्यवाद देना चाहिए, जिसने हमें इन नदियों के रूप में इतना पानी मुहैया करवाया जिसके बिना पूरा उत्तर भारत रेगिस्तान बन गया होता। हिमालय की ढलानों पर पाई जाने वाली वनस्पत्तियां उत्तरी गोलार्द्ध में पाई जाने वाली वनस्पतियों का ही छोटा प्रतिरूप है, जो कुछ किलोमीटर के दायरे में ही सिमट गया है। आप पाएंगे कि हिमालय की अलग-अलग अक्षांतरों पर मिलते हैं। नीचे की ढलानों पर उष्णकटिबंधीय पेड़ जैसे शोरिया रोबस्टा (कॉपी) पाए जाते हैं। थोड़ी ऊंचाई पर देवदार और बुरांस जैसे शीतोष्ण कटिबंधीय पेड़ पाए जाते हैं। इस ऊंचाई की ढलानों का उपयोग सेब, नाशपाती, आडू, आलुबुखारा जैसे शीतोष्ण फलों को उगाने के लिए होता है। असल में भारतीय बाजारों में मिलने वाले ज्यादातर सेब और नाशपाती इन्हीं हिमालयी ढलानों की देन हैं। हिमालय की सबसे ऊंची पट्टी पर चीड़ पाए जाते हैं, इनकी पत्तियां सुईनुमा होती हैं, जिनके कारण ये सदाबाहर होते हैं। और हर कठिनाई झेलते हुए कड़ी से कड़ी ठंढ़ भी सह जाते हैं। इन चीड़ वृक्षों की पहाड़ी पट्टी सदियों से हमारे लिए इमारती लकड़ी की पूर्ति करती आई है।

पूर्वी हिमालय पर भिन्न पट्टियों में विविध वनस्पत्तियों का फैलाव नाटकीयता लिए हुए हैं। हिमालय के पूरब की तरफ पहाड़ियों की ऊंचाई घटती जाती है, इसी वजह से तराई के जंगल हरे-भरे और उष्णकटिबंधीय वृक्षों से भरे होते हैं। हिमालय पर वनस्पतियों की विविधता का अंदाजा आस बात से लगाया जा सकता है कि आप जीप से आधे दिन में ही तराई के ऊष्णकटिबंधीय जंगलों से होते हुए सबसे ऊंचे शिखर पर जमी बर्फ तक पहुंच सकते हैं। सबसे ऊंचे पर्वत शिखरों के आसपास चीड़ के वृक्ष भी नहीं पाए जाते, क्योंकि तेज हवा के कारण वहां की मिट्टी उड़ जाती है और केवल चट्टानें रह जाती हैं। पर जैसे जैसे आप हिमालय पर्वतमालाओं की ओर बढ़ते जाएंगे, आप पाएंगे कि यहां समान ऊंचाई की असंख्य पहाड़ियां हैं और उन पर वनस्पतियां किसी क्रम के अनुसार नहीं होतीं। इन पर्वतों की तराईयों और ऊंचे शिखरों के बीच में घाटियां होती हैं, जो लगभग समतल होती हैं। इन घाटियों में खेती बारी और पशुपालन किया जाता है।
किसी भी देश की समृद्धि का आकलन उसकी भूमि की उर्वरता और मीठे पानी के जलस्रोतों से लगाया जा सकता है। भूमि की सबसे ऊपरी सतह की कुछ सेंटीमीटर मोटी मिट्टी को उर्वर मिट्टी कहते हैं। इसी मिट्टी में बीज उग सकते हैं और पौधों को पोषण मिलता है।

हल्की ढलानों पर (30 डिग्री से कम) हरी घास की मोटी परत होती है और यह घास, मिट्टी को अपनी जड़ों में मजबूती के साथ बांधे रखती है। घास की ढलाने भेड़ों के लिए अच्छे चारागाह का काम करती हैं। भेड़ इन ढलानों की घास को चरकर उनको और अधिक घना पैदा कर देती हैं। यूं तो भेड़ें भी नई पौध को बकरियों की तरह खा जाती हैं, पर जब तक ऊंची ढलानों पर ऊंचे पेड़ों के नीचे घास है, भेड़ों को कभी चारे की कमी नहीं होगी और ना ही हमें उनकी।
 
पर जैसे-जैसे ढलानें सीधी होती जाती हैं, उन पर जमी मिट्टी की परत को पकड़कर रखने के लिए किसी ऐसी चीज की जरूरत होती है जो कि मजबूत पंजों की तरह कार्य करे। दूसरे शब्दों में, हमें बड़े पेड़ों की फैलावदार व चट्टानों को भेद सकने वाली जड़ों की जरूरत होती है। पर्वतीय ढलानों पर मिट्टी को रोक सकने में और कोई चीज इतनी कारगर हो ही नहीं सकती। मिट्टी रोकने वाले इन पेड़ों को न केवल भिन्न जातियों का होना चाहिए, बल्कि उन्हें एक दूसरे के बहुत पास-पास भी होना चाहिए, ताकि उनकी जड़ें आपस में गुंथी रहें। हमें अलग-अलग तरह की जडें भी चाहिए; जैसे गहरी और भेदने वाली जड़ें और उथली व फैलावदार जड़ें। इन पेड़ों की पत्तियां इतनी घनी और विस्तृत होती हैं कि ये छतरी की तरह काम कर बारिश के पानी को सीधा जमीन पर गिरने से रोक लेती हैं। बारिश पहले इनके घने पत्तों की छतरी पर गिरती है और धीरे-धीरे रिसते हुए जमीन की ओर आती है। इस तरह से न सिर्फ मिट्टी को बहने से बचाते हैं बल्कि जमीन के जल स्तर को बढ़ाने में भी मददगार होते हैं।

पानी को जमीन में रिसने और भू-गर्भीय झरनों को बनने देने के लिए पानी का जमीन पर देर तक रुके रहना जरूरी है अगर पानी ढलानों पर बह जाए तो यह असंभव हो जाएगा। संभवतः यही वजह है कि प्रकृति ने इन ढलानों पर पानी रोकने की व्यवस्था खुद ही की हुई है। इन पेड़ों के बाद ढलानों से बहते पानी की तेज रफ्तार को ऊंची नीची जमीन और चट्टानों रोकती हैं, ताकि जमीन को पानी सोखने का भरपूर समय मिल जाए। इस तरह पानी बहकर बरबाद नहीं होता। भारी बरसात में भी थोड़ी बहुत मिट्टी के बह जाने का खतरा तो है ही, पर पेड़ों की मजबूत जड़ें मिट्टी को बहने से रोक लेती हैं। इस तरह ढलानों से बहकर नीचे आने वाला पानी साफ होता है तथा यह मटमैला नहीं होता। संभवतया यही पानी नीचे आकर झरने का रूप ले लेता है।

इस तरह हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि अगर पहाड़ों के ऊपर पेड़ों का घनत्व और घने घास की बहुतायत हो तो सारी समस्याएं एक हद तक अपने आप हल हो जाती हैं। इनकी वजह से झीलों में गाद नहीं भरेगी और नदी नालों का पानी गंदा और मटमैला नहीं होगा। यह निर्मल पानी घाटियों और मैदानों में खेती के काम आ सकेगा।

यह ध्यान में रखने वाली बात है कि पहाडियों को ढंके रखने के लिए सबसे आदर्श पर्णपाती जंगल होते हैं, जो भिन्न-भिन्न प्रजातियों के पेड़ों का सम्मिश्रण होते हैं। और सदियों से लगभग हमारी सभी पर्वतमालाओं पर इस तरह के जंगल प्राकृतिक ढंग से पनप चुके हैं।


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